क्यों धर्म, राष्ट्रवाद और सत्ता की दौड़ में पीछे छूट रही नैतिकता?

अलवर में एक औरत के साथ दुष्कर्म करने के बाद सोशल मीडिया पर उसकी वीडियो वायरल कर देना हो, दिल्ली में अपनी बेटी के साथ छेड़खानी का विरोध करने पर पिता की हत्या हो या फिर एक रेप पीड़िता के द्वारा खुद को आग लगा देना हो; चुनावों के मौसम में महिलाओं की बुरी स्थिति साफ साफ उजागर हो रही है। यह अलग बात है कि नेताओं ने राजनीति और मीडिया ने इन घटनाओं में टीआरपी के अलावा कुछ और नहीं देखा। ठीक है बीते 2 महीनों में जब पूरा देश इलेक्शन के रंग में डूबा था सब देश में कुछ ऐसी अमानवीय घटनाएं घटी जिनका ज़िक्र करना भी इंसानियत के मायनों को शर्मिंदा कर देता है। यह बात है यूपी के एक छोटे से जिले हापुड़ की जहां एक औरत खुद को जला लेती है ताकी अब कोई उसका रेप ना कर सके, यह बात है श्रीनगर की उस साडे 3 साल की बच्ची की जिसको चिंगम के बहाने लुभा कर उसका रेप कर दिया जाता है और सब से शर्मिंदा करने वाली हरकत तब सामने आती है जब हिमाचल में 3 साल की बच्ची का रेप इसी की स्कूल का एक नाबालिग छात्र करता है। सोचने की बात है कि आखिर क्यों, क्यों वह देश जहां महिलाओं को देवी के रूप में पूजा जाता है जहां उनके हकों के लिए आवाज उठाने का दावा किया जाता है आज उसी देश को यूएस रिपोर्ट ने महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित 10 देशों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। और चौंकाने वाली बात तो यही है कि 90% रेप मामलों में दोषी परिजन करीबी रिश्तेदार या दोस्त होते हैं। यह मैं नहीं कह रही हूं यह कहना है नेशनल क्राईम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट का जो यह बताती है की 2007 के बाद से रेप केस में 88 % का इजाफा है जहां अभी भी 54% केस किन्ही वजहों से दर्ज ही नहीं हो पाते हैं। अगर इन रिपोर्ट्स को देखें तो एक बार को तो विश्वास ही नहीं होता कि हमारे चारों तरफ इतनी गंदगी फैली है जिस समाज में हम रह रहे हैं वहां बेसिक एथिक्स और मोरल वैल्यूज कहीं दब से गए हैं। लगातार बढ़ रही इन घटनाओं में कितना कसूर इन अपराधियों का है उतना ही हमारी सामाजिक मानसिकता का भी है जो बचपन से ही एक बच्चे के जहन में सेक्स डिफरेंसेस को सुपीरियरटी और इंफेरियारिटी का दर्जा दे देता है, कसूर उस सोशल मीडिया और उन लेखकों का भी है जो अपनी किसी पिक्चर में एक आइटम सॉन्ग डाल देना डेली सॉप्स में औरतों को मजबूर या कमजोर दिखाना और प्रेम प्रसंगिक कहानियों में उनको केवल एक वस्तु की तरह इस्तेमाल करना टीआरपी बढ़ाने का दरिया समझते हैं। यह केवल महिलाओं के अस्तित्व नहीं बल्कि इस पुरुष प्रधान समाज की प्रधानता और नैतिकता पर कई सवाल छोड़ देता है।

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